अब कहां आंखो से आंशु गिरते हैं।
टपकते हैं ये बगैर मेरे आंखो के इजाजत के, दर्द ये दिल के पता नहीं कैसे समझ जाते हैं।
जो कभी ख़ामोश हुआ करता था कभी वो मेरे खामोशी के पीछे का हाल पूछते थे।
और आज बेहिंतहन रोता हूं फिर भी मेरी उनके जुबान पे ज़िक्र नहीं होती।
करके देख लो कोशिश खुद से दूर रखने की, याद तो आऊंगा मैं एक ना एक दिन जड़ा अपने आंसु बचा के रखना।
अब सोचता हूं खुद को दफन कर लूं, तुम्हारे यादों के साथ , पर ये कंबतख़ मौत की नींद सोने नहीं देती।
शायद अब उम्र पूरी गुजार दूं , तेरी यादों के सहारे
अब आंखे बंद करता हूं तो चेहरा तेरी ही बनती है।
क्या कहूं अब अपनी इस बेबसी का बस ये समझ लो कि
की आंखे तो रोती है पर अब उनमें अश्क नहीं होती ।
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