क्या लिखूं मैं, डर सा लगता है मेरा लिखना पता नहीं किस किस को बुरा लग जाए मेरी ये लिखावट।
जो चंद अल्फ़ाज़ बया करता हूं अपने दर्द का लोग समझते हैं उनके लिए लिखा हूं मैं।
डर सा लगता है लोगों से आजकल बात करना क्या पता कब रूठ जाए मेरे से किस बात से ।
एक पल के लिए मना तो सकता हूं लोगों को।
पर बेहिसाब टूटा हूं खुद को समेटने में दिन गुजर जाती है।
और मना तो सकता हूं पर अब हिम्मत ही नहीं होती है लोगों के करीब जाने की ।
बात करने की।
किसी ने तो ये कहकर दूर किया की यार तुम कितने बाते करते हो तो किसी ने ये कहकर दूर किया की तुम बाते क्यों नहीं करते ।
क्या लिखूं अब मैं या तो समंदर में डूबता तैराक हूं मैं।
या आग में झुलसा अधजला इंसान हूं मैं।
सच कह रहा हूं सभी से दूरियां बनाने लगा हूं मैं।
एक दिन मैं वी औरों की तरह हो जाऊंगा ।
कफ़न में लिपटी मेरी वी लाशें होंगी पर बोल कुछ वी नहीं पाऊंगा ।
कोई अफसोस करेगा तो कोई चार कदम पैदल चल लेगा मेरे जनाजे के साथ।
अफसोस बस इतना सा होगा मैं बाकियों के जैसा कभी बन नहीं पाऊंगा ।
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